कोंपल सा निकल जब में बाहर आया
रसीली सी खुशबू को अपने पास पाया
धीरे धीरे कोंपल से खिला में बड़ा में
रूप योवन पे इतरा के खूब तना में
देख खुद को ताने रोज़ था में देता
मुझसे है गुलशन वरना क्या बजूद तेरा
डाल से तोड़ उड़ा दूर ले गयी
योवन का रस अब ढ्लने सा लगा
रस शाख सो जो मिला था घटने सा लगा
कब तक करता खुद से में पूरा
अब तो साँस में फाँस अटकने सा लगा
मै में फ़ंस गया था अब समझने लगा हु
जीवन का अर्थ अब महसूस कर रहा हु
अकेला सा पथ पे नहीं चला जाता
शाख से बंधा था तो ही सरल था
जीवन मै जीवन बहुत ही मगन था
टूट के टूटना यही सत्य दर्शन है
अब जा के समझा जब सब सुख गया
शाख से बंधा था क्यों टूट गया
अब न जुड़ पाउँगा होम हो जाऊंगा
बीज बन के कही पड़ जाऊंगा
बूंदे प्यार की पाने को तड़पता रहूँगा
गर जो बरसा फिर से मुझपे सावन
कोंपल सा फिर से निकल बाहर आऊंगा
न इतरा के साक्ष्य दिखाऊंगा
सत्य का पथ बस खिल के बताऊंगा ....
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