रंगों की परिभाषाये अलग अलग है पर अंत सुंदर है सजीव है व्याप्त है चहु और है.....
मेरे कुछ रंग आप को समर्पित है ................
रंग
शब्द सुनते ही ..
सतरंगी सा इन्द्रधनुष
आँखों में छा जाता है .....
उन आँखों का
क्या करू ..
जिसने रंग देखा ही नहीं ...........
रंग
थाल देखते ही ...
मन मचल सा उठता
जी ललचा जाता है .....
उन हाथों का
क्या करू ..
जिसने बचपन बोझ उठाया .........
रंग
बड़े ही अजीब है
भरमाते है
उम्मीद उठा जाते है ...
उन उमीदों
का क्या करू ..
दहेज़ में ही टूट जाती है .....
रंग
रंग अवसादों का
बड़े फसादों का ...
तकसीम वजूद करते है ....
उन वाजूदों
का क्या करू .
सरहद के पर भी एक है ..........
रंग
काश सही में रंगीन होता
एक सेहर एक जान
बचपन में घुला होता
जुद्दा न कोई वतन होता ...
न टूटता न बिखरता
बस मदमस्त
हसीन होता ......
रंग ....
रंग ....
रंग ................
ना लाल...
ना पीला ...
ना नीला ...
ना काला ...
ना हरा ...
ना सफ़ेद....
बस रंग
रंगीन होता ............
ना तू होता
ना में होता
बस हम होता ..........
रंग ........................
विनय .....०७/०३/१२ १:४८ दोपहर ...........
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