हमारी वाणी

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Friday, 9 December 2011

यु ही........


यु ही दूर गगन में 
एक बदल का टुकड़ा 
छोटा सा उड़ता 
मदमस्त यु ही 
छूने को मेने 
हाथ बड़ा दिए उस और ...
रुई के फोय सा नरम 
एहसास पोरों में 
आ बैठा..
उँगलियों में मेरे  
जैसे गेसुओं की घटाओं 
में उलझे उलझे 
भीनी भीनी खुशबू 
फैल गयी हो चाहू और 
चांदनी फिजाओं में 
लौट आयी सारी 
छोटी छोटी 
वोह महकती यादें 
फिर चिलमन से छुपती 
झप से 
आँखों की पलकों में मेरे 
वोह तेरा रुखसार पे 
नागिन सी काली
लट का लहरना  
हलके से गर्दन का 
बेबाक झटकना 
खिलखिला के 
हर बात पे चेह्कना 
घंटो बैठ तेरे सपनों 
का बुनना 
तभी अचानक 
यह क्या हो गया 
वक़्त इतना बेरहम 
क्यों हुआ 
अंधी का यह सेलाब
क्यों ले उड़ा
उस टुकड़े को बादल के 
जो मेरा था 
जिंदगी के इस दोराहे पे 
मेने सब्र का घूंट 
पी तो लिया था 
हकीकत से सम्झोता 
कर तो लिया था 
होम के खुद को 
तुझे जाने तो दिया था 
फिर आज वोह पल 
याद किया अगर पल 
वोह मेने फिर जीया
तो क्या यु ही 
कोई गुनाह मेने किया ...


विनय .... २३/११/२०११  

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