हमारी वाणी

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Tuesday, 1 May 2012

चक्र निरंतर ....................


में दीवानी 
मेरी दुनिया अलग 
हर रंग हर हर्फ़ 
हर परचा अलग 

तू भी तो भिन्न है 
तेरे रंग भी अलग
ठोर जुद्दा रस्ते जुद्दा
मंजिलों का पता जुद्दा

फिर क्या जोड़े है
क्या खींचे आकर्षण कैसा
स्पर्श स्पंदन मीठा कैसा
बंधन क्यों बन बैठा ऐसा

पिपासा तृष्णा जिज्ञासा
बड़े नाम व्याप्त
चिर अन्नंत वोह यही रुका
रस घोल कंठ
मेने तुने चखा

चक्र शांत
अद्रश्य रूप य़ू चलता
क्षण भंगुर
श्याम माटी हुआ ..
तू में ना ..
बस हम होम हुआ ...

अंकुरण बीज
प्रफुलित हो
गर्भ से निकल
फिर चक्र निरंतर
में..
तू ..
हम ................

विनय ....१२/४/१२ ...

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