हमारी वाणी

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Saturday 3 August 2013

यात्रा अंतर्मन की ....: अलग ख्यालात .. मुख्तलिफ जज़्बात

यात्रा अंतर्मन की ....: अलग ख्यालात .. मुख्तलिफ जज़्बात: ख्यालातों का पुलिंदा कब खुल जाता है और कैसे सामने आ के वक़्त की देहलीज़ पे खड़ा हो के दिल के बंद दरवाज़ों पे दस्तक दे के होल से जगा जाता ...

अलग ख्यालात .. मुख्तलिफ जज़्बात

ख्यालातों का पुलिंदा कब खुल जाता है और कैसे सामने आ के वक़्त की देहलीज़ पे खड़ा हो के दिल के बंद दरवाज़ों पे दस्तक दे के होल से जगा जाता है उसका एहसास तब होता है जब पलकों की कोरों से चंद कतरे यु ही बेबाक हो के जेहन हो गिला कर देते है और उस उस चंद कतरों से बंजर जमीन में कब कोई नन्हा सा बीज अंकुरित हो के घावों से भरे मन की
दीवारों को ठंडक दे देता है बस यही प्रयास है मेरा आप तक उस भावना को अपने समंदर से प्रवाहित कर सकू की जो मिठास उस पल से मुझे छु जाती है आप को भी सहला जाये !

चंद अलफ़ाज़ मेरे, मुख्तलिफ जज़्बात आप के साथ !

तुम्हारी ख़ुशी का आलम कुछ जुदा सा है मुझसे !
फ़क्त बिके कुछ सामान .. .. .ख़ुशीयां हज़ार मेरी !!


सिमटे है .. अपनी ही सलीबों की कीलों में 
फ़क्त इंतज़ार में की कोई बयार आए उधेड़ दे !
एक दो ही सही रुके हुए इस बे स्वाद मौसम में 
हलके ही सही .. मंद मंद जिंदगी के तार छेड़ दे !!

भोर तलक उलझता रहा .. शब्दों की उलझन में !
सुलझ ही जाएगी खुद ब खुद किताब जिंदगी की !!

दहकता है .सुलगता हरपल बन के कोयले जैसे !
कहने को आदमी है .सुलगती चिंगारियां भीतर !!

महकते है काटों में फूल बन के हम रातों में भी अक्सर ! 
फक्त एक कतरा तेरे आफताब का ... मयसर हो अगर !!

ना कर उम्मीद की अक्सर टूट जाती है ! 
नींदखुमारी उड़े सरे सपने लूट जाती है !!

रोशन चिराग की .. जुस्तजू महज़ इतनी !
बुझने से पहले .. हो जाये सभी तमन्नाये पूरी !!

उनकी फितरते ... की बदलने का नाम नहीं लेती ! 
चलो कुछ यु करते है .. हम खुद ही बदल जाते है !!

खामोशियाँ अक्सर .. कानों में बड़ी तेज़ गूंजती है !
भागो पीछे उनके .. अक्सर अकेला कर गुज़रती है !!

धडकती सांसों में मिलती है वजूद की लकीरे ! 
एक तेरी तरफ एक खामोश यु ही मेरी तरफ !!

खुरदरी जमीन पे नमी की परत बन 
गिरती है बूंदे तेरे अल्फाजों की जैसे!
क्यों महज़ चंद लम्हों में ही सीमित
अफ़सोस नहीं बरसती ता उम्र ऐसे !!

रखा है ख्वाबों के ताबीर में मेने चूरा के कुछ पल ! 
देखे झुकता है पलड़ा चाँद का .. या मेरे सब्र का !!


इस सफे पे बस इतना सा ही जब भी फिर दिल दस्तक सुनेगा यादों के पुलिंदे फिर खुलेंगे फिर आप की खिदमत में यह बाशिंदा हाज़िर होगा .. बस आखिर में समाप्त करता हु चंद कुछ शब्दों के साथ

रोज़ टूटता है कुछ रोज़ जुड़ता है सम्बन्ध 
बिखरता है सिमटता है यु ही ये अन्तर्द्वन्द 
गुजरता है चुप चाप बिना आहटों के यह 
रेत सा फिसलता वहां भी यहाँ भी अन्नंत 
परिभाषा है यही यही है जीवन का अनुबंध.

** विनय **


Sunday 8 July 2012

तुम हो ?... तुम हो !

यथार्थ के धरातल पे ..
मूक मोन एक प्रश्न ...
तुम हो ... ?

विस्मृत सा अवाक् ..
देखता ..पूछता ..
अन्तर्द्वन्द जूझता ...

धकेलता दूर ..
चीरता अंधकार ..
भेदता द्रिष्टिप्ल्ट ...

गहराई गूँज में
टटोलता सत्य ..
पा बैठा अवचेतन में ...

अनभिग्य था ...
सार समस्त व्याप्त
भीतर वही ....

प्रफुटित कोंपल ..
सुगंध कस्तूरी ...
तुम्हारे होने का रहस्य खोलती ...

यथार्थ को धरातल ..
पे समक्ष ..
एक दम प्रत्यक्ष ....

आनंदित ..हाँ ....
प्रतिबिम्ब ......
मुखरित हो ... तुम हो !!!........

.... विनय ...

Wednesday 20 June 2012

खँडहर .


यु ही चलते चलते ..
खिड़की से बाहर देखा ...
मानो वोह दूर खड़ा खँडहर ..
तेज़ी से मेरे साथ दोड़े जा रहा हो .....

अक्सर जब भी में ..
यु ही बाहर देखता हु ..
तो उसको अपने साथ ही दोड़ता पाता हु ....
स्थित है अपनी जगह ...
खंडित फिर भी जीवंत ...

लगता है बहुत कुछ कह जाता है ..
फिजाओं में आइना दिखाता ..
मिलवाता सत्य से ..
परोक्ष में अवचेतन को भेदता .....
सार बतलाता .......

पल पल एहसास करवाता ...
खंडित होने का . ..
फिर भी बेहने  का ..
जिसने सेका है भिन्न भिन्न तापो को ...
अन्तराल में ...
आंधियों और तुफानो को ..
हंसी और गम के मुहानों को ..
फिर भी अडिग ..धरातल से बंधे ..
अविरल देखा है चलते .
मेरे साथ साथ ..
अन्नंत तक ..
अपना वर्चस्व ...
अपनी गरिमा ...
भूत का भविष्य से..
वतर्मान में सामना ....
कराते...
हाँ वोह दोड़ता है पल पल
जब जब में देखता हु ...
खिड़की से बाहर ....

कभी मुझे ऐसा लगता है
मानों तुम ही यात्रारत हो
और में एक  स्थान पर अडिग खड़ा ..
कर्म में निरत हो
तुमको निहारता ...
जीवन का दिया तुम्हारा पाठ ...
निरंतर बदलाव का, बांचता ....
हाँ .....
तुम ....
खँडहर ......
मेरे भीतर हो ...
जब जब में झांकता ...
मन खिड़की से तुमको ................

......... विनय .............

Monday 18 June 2012

खँडहर


खँडहर

ख्वाबों का खँडहर ..
तलहटी से चिपका ...
बेबाक सा उजड़ा हुआ ...
पर्खचों में तब्दील ...
खूंटी से बंधा ....
वक़्त के थपेड़ों से ..
जुझ्झता अपने ख़त्म होने का ..
इंतज़ार करता हुआ ....
पड़ा ...........

जिस पल एक मौज ...
आ चूम लेती...
होले से आ ...
आँखों में झांक लेती ....
ले चलती सफ़र पुराने ....
रंगीन उस घर के मुहाने ....
जहाँ खिलती थी ...
खुशियाँ ....
जिंदगी जिंदगी से ...
मिलती थी ....
आंगन में फूलों की ...
महक यहाँ वहां ...
किवाड़ के पीछे ...
मेरी रूह के अंचल के पीछे ...
मोतियों सी खिलखिलाती ...
अटखेलियों शोरोगुल मचाती ....

देख उनको भूल जाता था
नयी रौशनी सा भरा रोज़ ..
किवाड़ खोल सुबह निकल जाता था ....
दोने भर ख्वाबों से ....
चंद ही सही...
मिश्री के दाने से ...
हंसी संतोष के बहाने से ..
होंठों को सजा लाता था .....

न जाने पुरवाई कहाँ ......
बही ...
अंधड़ सी बन सब ले उडी ...
तिनके बिखर गये ...
चेहरों के रंग ..
बदल गये ....
बोझ बन हम ...
खूंटी पे तन गये ...
जून रोटी भी अब तो ...
भारी लगे ...
नश्तर सी गले में गाली लगे ...

सींचा था गुलाब ..
बबूल हो गया ...
लहरों पे जो चलता था ..
आज खँडहर हो गया ....
दूर ...
बहूत दूर...
ख्वाबों का खँडहर ..
तलहटी से चिपका ...
बेबाक सा उजड़ा हुआ ...
पर्खचों में तब्दील ...
खूंटी से बंधा ....
वक़्त के थपेड़ों से ..
जुझ्झता अपने ख़त्म होने का ..
इंतज़ार करता हुआ ....
पड़ा ...........


.... विनय ....

दिल में कुछ चुभे ऐसी कोई हरकत करो,
गोया कोई मुझे ढूँढने में मेरी मदद करो .....

इत्मीनान

अजीब सी यह कहानी है ..
बस तेरी यह मेहरबानी है 
झिरी से झांकती ...
सिने की परतों में ताकती ..
आती है होले से जगाती है...
एक पुडिया ...
हाथों में थमा सूरज की किरण ..
बादलों में भाग जाती है ...
धरा खोलती है ...
एक नज़र डालती है ...
मंद मंद मुस्कराती है ...
सूरज को देख ...
होंठों में बुदबुदाती है .....
तुम पास हो तो इत्मीनान है ...
न हो तो जालिम ....
यह दिन एक इम्तिहान है ..

.......... विनय ....... 

Wednesday 23 May 2012

चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के .........


चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के 
रंगो का मिश्रण मात्र नहीं ...
सोच के विभिन आयाम ..
रूप लेते है ..
बनते है बिगडते है ..
रेखा चित्र तब ..
एक रूप ले के ..
पृष्ठ पर उभरते है ...
कुछ आड़ी तिरछी आकृतियाँ  ..
जीवन के पड़ाव ..
पड़ाव के भिन्न भिन्न...
स्वरूप उनके रंग ..
पीड़ा के ,,,
आंनंद के ..
उद्वेग के ...
निस्वार्थ के ...
लगाव के ...
मूक ....
फिर भी चंचल ...
शांत ..
स्थिर ...
गूँज बन के ..
फ़ैल जाते है पृष्ठ पे ....
आइने की भांति ...
अक्स खिंच देते है ...
अनकहे सभी सवालों को ...
बिन कहे ही हल देते है ....
चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के ...
निरंतर यह चक्र ..
समय सा चलता है ..
बिना विश्राम लिए ...
धुरी से बंधा घूमता ...
स्याह सफ़ेद होता ..
चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के .....

विनय .. २३/५/२०१२ .........