हमारी वाणी

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Friday 9 December 2011

मुट्ठी भर धूप....


एक टुकड़ा धूप का बंद कर लिया 
मुट्ठी  न खोलुंगी  छुपा लुंगी कही ..
बसते के किसी कोने  में डाल के 
घर ले जाउंगी 
रात को रजाई में खोलुंगी 
तन्हाई में बैठ घंटो उस से बाते 
सुबह को वो  पैदल जाना 
रस्ते में करोंदों को नमक के साथ खाना 
हँसना एसे ही बे बात पे चहक जाना 
देर तक चौराहे पे कबूतरों को देखना 
छप से आहट  करना और फिर भागना 
पहली घंटी पे भाग के बाहर आना 
चवन्नी पे यु कितना इतराना 
दस पैसा भी कल के लिए बचाना 
वोह सब में आज मुठी भर धूप से  ढूंड  लुंगी 
बचपन जो खो गया था 
कल से छीन लूंगी 
बड़ी याद आती है हर पल की  
काश मुट्ठी भर धूप सब लौटा दे 
सहेजा है हर पल 
मेरे आंगन में बिखरा दे 
दे जाओगी ना 
धूप तुम कल फिर आओगी ना ..... 


विनय .....७/११/२०११ 

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