हमारी वाणी

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Sunday 8 July 2012

तुम हो ?... तुम हो !

यथार्थ के धरातल पे ..
मूक मोन एक प्रश्न ...
तुम हो ... ?

विस्मृत सा अवाक् ..
देखता ..पूछता ..
अन्तर्द्वन्द जूझता ...

धकेलता दूर ..
चीरता अंधकार ..
भेदता द्रिष्टिप्ल्ट ...

गहराई गूँज में
टटोलता सत्य ..
पा बैठा अवचेतन में ...

अनभिग्य था ...
सार समस्त व्याप्त
भीतर वही ....

प्रफुटित कोंपल ..
सुगंध कस्तूरी ...
तुम्हारे होने का रहस्य खोलती ...

यथार्थ को धरातल ..
पे समक्ष ..
एक दम प्रत्यक्ष ....

आनंदित ..हाँ ....
प्रतिबिम्ब ......
मुखरित हो ... तुम हो !!!........

.... विनय ...

Wednesday 20 June 2012

खँडहर .


यु ही चलते चलते ..
खिड़की से बाहर देखा ...
मानो वोह दूर खड़ा खँडहर ..
तेज़ी से मेरे साथ दोड़े जा रहा हो .....

अक्सर जब भी में ..
यु ही बाहर देखता हु ..
तो उसको अपने साथ ही दोड़ता पाता हु ....
स्थित है अपनी जगह ...
खंडित फिर भी जीवंत ...

लगता है बहुत कुछ कह जाता है ..
फिजाओं में आइना दिखाता ..
मिलवाता सत्य से ..
परोक्ष में अवचेतन को भेदता .....
सार बतलाता .......

पल पल एहसास करवाता ...
खंडित होने का . ..
फिर भी बेहने  का ..
जिसने सेका है भिन्न भिन्न तापो को ...
अन्तराल में ...
आंधियों और तुफानो को ..
हंसी और गम के मुहानों को ..
फिर भी अडिग ..धरातल से बंधे ..
अविरल देखा है चलते .
मेरे साथ साथ ..
अन्नंत तक ..
अपना वर्चस्व ...
अपनी गरिमा ...
भूत का भविष्य से..
वतर्मान में सामना ....
कराते...
हाँ वोह दोड़ता है पल पल
जब जब में देखता हु ...
खिड़की से बाहर ....

कभी मुझे ऐसा लगता है
मानों तुम ही यात्रारत हो
और में एक  स्थान पर अडिग खड़ा ..
कर्म में निरत हो
तुमको निहारता ...
जीवन का दिया तुम्हारा पाठ ...
निरंतर बदलाव का, बांचता ....
हाँ .....
तुम ....
खँडहर ......
मेरे भीतर हो ...
जब जब में झांकता ...
मन खिड़की से तुमको ................

......... विनय .............

Monday 18 June 2012

खँडहर


खँडहर

ख्वाबों का खँडहर ..
तलहटी से चिपका ...
बेबाक सा उजड़ा हुआ ...
पर्खचों में तब्दील ...
खूंटी से बंधा ....
वक़्त के थपेड़ों से ..
जुझ्झता अपने ख़त्म होने का ..
इंतज़ार करता हुआ ....
पड़ा ...........

जिस पल एक मौज ...
आ चूम लेती...
होले से आ ...
आँखों में झांक लेती ....
ले चलती सफ़र पुराने ....
रंगीन उस घर के मुहाने ....
जहाँ खिलती थी ...
खुशियाँ ....
जिंदगी जिंदगी से ...
मिलती थी ....
आंगन में फूलों की ...
महक यहाँ वहां ...
किवाड़ के पीछे ...
मेरी रूह के अंचल के पीछे ...
मोतियों सी खिलखिलाती ...
अटखेलियों शोरोगुल मचाती ....

देख उनको भूल जाता था
नयी रौशनी सा भरा रोज़ ..
किवाड़ खोल सुबह निकल जाता था ....
दोने भर ख्वाबों से ....
चंद ही सही...
मिश्री के दाने से ...
हंसी संतोष के बहाने से ..
होंठों को सजा लाता था .....

न जाने पुरवाई कहाँ ......
बही ...
अंधड़ सी बन सब ले उडी ...
तिनके बिखर गये ...
चेहरों के रंग ..
बदल गये ....
बोझ बन हम ...
खूंटी पे तन गये ...
जून रोटी भी अब तो ...
भारी लगे ...
नश्तर सी गले में गाली लगे ...

सींचा था गुलाब ..
बबूल हो गया ...
लहरों पे जो चलता था ..
आज खँडहर हो गया ....
दूर ...
बहूत दूर...
ख्वाबों का खँडहर ..
तलहटी से चिपका ...
बेबाक सा उजड़ा हुआ ...
पर्खचों में तब्दील ...
खूंटी से बंधा ....
वक़्त के थपेड़ों से ..
जुझ्झता अपने ख़त्म होने का ..
इंतज़ार करता हुआ ....
पड़ा ...........


.... विनय ....

दिल में कुछ चुभे ऐसी कोई हरकत करो,
गोया कोई मुझे ढूँढने में मेरी मदद करो .....

इत्मीनान

अजीब सी यह कहानी है ..
बस तेरी यह मेहरबानी है 
झिरी से झांकती ...
सिने की परतों में ताकती ..
आती है होले से जगाती है...
एक पुडिया ...
हाथों में थमा सूरज की किरण ..
बादलों में भाग जाती है ...
धरा खोलती है ...
एक नज़र डालती है ...
मंद मंद मुस्कराती है ...
सूरज को देख ...
होंठों में बुदबुदाती है .....
तुम पास हो तो इत्मीनान है ...
न हो तो जालिम ....
यह दिन एक इम्तिहान है ..

.......... विनय ....... 

Wednesday 23 May 2012

चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के .........


चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के 
रंगो का मिश्रण मात्र नहीं ...
सोच के विभिन आयाम ..
रूप लेते है ..
बनते है बिगडते है ..
रेखा चित्र तब ..
एक रूप ले के ..
पृष्ठ पर उभरते है ...
कुछ आड़ी तिरछी आकृतियाँ  ..
जीवन के पड़ाव ..
पड़ाव के भिन्न भिन्न...
स्वरूप उनके रंग ..
पीड़ा के ,,,
आंनंद के ..
उद्वेग के ...
निस्वार्थ के ...
लगाव के ...
मूक ....
फिर भी चंचल ...
शांत ..
स्थिर ...
गूँज बन के ..
फ़ैल जाते है पृष्ठ पे ....
आइने की भांति ...
अक्स खिंच देते है ...
अनकहे सभी सवालों को ...
बिन कहे ही हल देते है ....
चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के ...
निरंतर यह चक्र ..
समय सा चलता है ..
बिना विश्राम लिए ...
धुरी से बंधा घूमता ...
स्याह सफ़ेद होता ..
चित्र भिन्न भिन्न प्रकार के .....

विनय .. २३/५/२०१२ ......... 

Monday 21 May 2012

यादों का पुलिंदा ....


कितने ही पुलिंदे  बांधे यादों के ...
यु ही साथ साथ चलते है ..
चलचित्रों की भांति ..
नयनों में विचरते है ....
झप से वोह आया ..
टप से उसने आ जगाया ...
चित्र अवसादों के ...
सुनहले ख्वाबों के ...
हर आहट एक नया राज़...
फिर से वही नुक्कड़ पे ...
शोरोगुल भीषण नाद ....
पोटली खुली की ...
चद्दर तन जाती है ...
रहस्यमई सी आवाजे गूंज जाती है ....
हाथों में फिर रेत मचलती है ....
उसकी तेरी मेरी वहां यहाँ ...
जाने कैसे कहाँ ...
अनकही बातों का समंदर ..
उफ्फंता यहाँ यही भीतर ...
डूबा डूबा सा साहिल खड़ा वहां ...
देखता है यहाँ भी वहां ...
पखड़डी पे चलते निशान ...
फिर वही ले जाते ....
जहाँ बिता था एक एक लम्हा ..
खंडरों की दीवारों पे..
जहाँ गुदा तेरा मेरा नाम ...
आज भी तैरती  हंसी वहां ....
उठती है माँ की आवाजे ...
मीठी मीठी गलियों के साथ ...
अंचल की ठंडी छावं ...
दुलार भरी पुचकार वहां ...
रेल की तीखी सिटी की पुकार ....
उसकी आँखों में तैरता बहता ..
वोह प्यार ...
फिर कब मिलना होगा ...
उठता सवाल......
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के मध्य ...
कहाँ खो गया ...
डिब्बियों में आज किस कदर ..
कैद हो गया ....
सांसों का भी रखना पड़ता ..
गिन के हिसाब ...
रातों में नीद को पुकारता ..
चीखता कुरेदता ...
भटकता ...
वही खिड़की पे जा अकड़ता ....
जब जब वोह आया ...
वहां से बहता ..
एक ठंडा सा झोंका ..
हवा का ....
फिर बांध लाया ..
यादों का पुलिंदा ....
थक हार के ...
ले आगोश में ...
माँ ने वही झट ले गोद में ...
मुझे लोरी गा सुलाया ....
एक पुलिंदा हवा के साथ ...
फिर मेरी खिड़की पे ....
बह के आया ................ 



विनय ......
 21/5/201

Wednesday 16 May 2012

मौन मूक एक प्रश्न ......



मौन मूक एक प्रश्न 
रहता है ..
बारम्बार जब भी ..
यह पूछा जाता है .......
पूछा मेने हवाओं से ..
रहती हो बहती हो कैसे ...
उत्तर था ..
धमनियों में जैसे ...
पर वहां यह मौन रहा ....
आगे बड़ पूछा ..
कण धरा से ..
उपजाती हो कैसे ..
बाग सुनहले सजाती हो कैसे ..
उत्तर था ....
सपने जैसे बुनते हो ..
नयी डगर चुनते हो ....
पर वहां यह मौन रहा ...
सहजता से बड़े होले से ...
पूछा अवरिल जल कैसे बहते हो ...
उत्तर था ...
नीर निर्मल बन बहना है ..
ख़ुशी गम मिल सहना है ...
पर वहां यह मौन रहा ...
जा पकड़ा अब सूरज का द्वार
पूछा क्यों आता अधेरों को चीर ...
उत्तर था ....
पनपता बिज भी गर्भ में
फूटता है चीर ...
लुटाने बिखेरने ............
पर वहां यह मौन रहा ...
मौन.का मौन से प्रश्न ............
मूक ................
अडिग ....
अचल ..........
आँखों में झाँका ....
तीर सा तीखा पैना ........
रूह को चीर गया ........
पर फिर भी मौन रहा ...
पर सब कुछ ..
स्पष्ट साफ़ समतल ..........
ला पटका धरातल ....
प्रेम का यह ...
अज़ब मौन ....
मौन में शांत ....
अविरल झंझ्वत तूफान .....
पर वहां यह मौन रहा ...
पर वहां यह मौन रहा ...
पर वहां यह मौन रहा ... .....................

विनय ...... ११/५/२०१२ 

Tuesday 1 May 2012








मै हूँ  .....

जिंदगी के कुछ पन्ने उधार है हम पे 
जब चाहे अपनी कलम से लिख देना ..मै हूँ  .....


रास्ते बहुत है बाकी अभी बतेरे मोड़ भी 
जब चाहे जिस मोड थाम लेना हाथ मेरा .. मै हूँ   .....


रकीबों रंजिशों से भरी है हर शे इस शेहेर की 
खड़ा हु आज भी वही बस मुड़ के देख लेना .. मै हूँ   ....


रेला भीड़ का है आज चारो और तेरे यहाँ 
जिस पल तनहा हो जाओ बस आवाज़ देना .. मै हूँ   ...


विनय ...४/४/१२ ....
चक्र निरंतर ....................


में दीवानी 
मेरी दुनिया अलग 
हर रंग हर हर्फ़ 
हर परचा अलग 

तू भी तो भिन्न है 
तेरे रंग भी अलग
ठोर जुद्दा रस्ते जुद्दा
मंजिलों का पता जुद्दा

फिर क्या जोड़े है
क्या खींचे आकर्षण कैसा
स्पर्श स्पंदन मीठा कैसा
बंधन क्यों बन बैठा ऐसा

पिपासा तृष्णा जिज्ञासा
बड़े नाम व्याप्त
चिर अन्नंत वोह यही रुका
रस घोल कंठ
मेने तुने चखा

चक्र शांत
अद्रश्य रूप य़ू चलता
क्षण भंगुर
श्याम माटी हुआ ..
तू में ना ..
बस हम होम हुआ ...

अंकुरण बीज
प्रफुलित हो
गर्भ से निकल
फिर चक्र निरंतर
में..
तू ..
हम ................

विनय ....१२/४/१२ ...

Wednesday 7 March 2012









रंगों की परिभाषाये अलग अलग है पर अंत सुंदर है सजीव है व्याप्त है चहु  और है.....

मेरे कुछ रंग आप को समर्पित है ................


रंग
शब्द सुनते ही ..
सतरंगी सा इन्द्रधनुष
आँखों में छा जाता है .....

उन आँखों का
क्या करू ..
जिसने रंग देखा ही नहीं ...........

रंग
थाल देखते ही ...
मन मचल सा उठता
जी ललचा जाता है .....

उन हाथों का
क्या करू ..
जिसने बचपन बोझ उठाया .........

रंग
बड़े ही अजीब है
भरमाते है
उम्मीद उठा जाते है ...

उन उमीदों
का क्या करू ..
दहेज़ में ही टूट जाती है .....

रंग
रंग अवसादों का
बड़े फसादों का ...
तकसीम वजूद करते है ....

उन वाजूदों
का क्या करू .
सरहद के पर भी एक है  ..........

रंग
काश सही में रंगीन होता
एक सेहर एक जान
बचपन में घुला होता
जुद्दा न कोई वतन होता ...
न टूटता न बिखरता
बस मदमस्त
हसीन होता ......

रंग ....
रंग ....
रंग ................

ना लाल...
ना पीला  ...
ना  नीला ...
ना  काला  ...
ना  हरा ...
ना  सफ़ेद....

बस रंग
रंगीन होता ............

ना तू होता
ना में होता
बस हम होता ..........

रंग ........................


विनय .....०७/०३/१२  १:४८ दोपहर  ...........

Friday 2 March 2012

अभिनन्दन बसंत अभिनन्दन

....... अभिनन्दन बसंत अभिनन्दन .............


दूर सदूर बंजर पहाड़ो पे 
गिरी जब बसंती पहली धूप 
गुदगुदाती सी धरा ली झूम 
सूरज आज तीखा तेज नहीं है 
नरम है धरा की गोद में 
पड़ा बिज थोडा गरम है 
अंगड़ाई ले के निकल आया जो 
हरयाली को होले से बुलाया जो 
बयार बसंत भी रुक न पाई 
झूले सावन ने ली अंगड़ाई 
देखो कोम्पले फूटने लगी है 
धरा की हथेलियों पे खिलने लगी है 
ले के रंगों की फुहार 
जैसे गेसुओं में भीनी भीनी 
खुशबुओं की बोछार 
अब धरा रुक नहीं पाती 
पते पते में सूरज की जगी है बाती
खिले है गुल हज़ार 
लो आज आ गया 
झूमता बसंत बहार ...
अठखेलियाँ अब न थमेगी 
सहेलियां बाग में झुला पगेंगी ..
मुस्कराहटों का गरम है बाज़ार 
आ जाओ धरा बुलाती है 
मंद मंद सूरज के संग 
बयार झूल जाती है 
छोड़ो सब सारे अवसाद 
फेंक दो पुराने रंज जो लिए थे उधार
गले लगा लो 
देखो फैले है 
कितने रंग हज़ार 
हाँ आ गया है 
आज बसंत मेरे यार ..बसंत मेरे यार ......बसंत मेरे यार ...................

विनय ...२१/०२/१२ ....७:२० साँझ.

Wednesday 1 February 2012

jiwan

कोंपल सा निकल जब में बाहर आया 
रसीली सी खुशबू को अपने पास पाया 
धीरे धीरे कोंपल से खिला में बड़ा में 
रूप योवन पे इतरा के खूब तना में 
देख खुद को ताने रोज़ था में देता 
मुझसे है गुलशन वरना क्या बजूद तेरा

आंधी फिर एक दिन ऐसी उठी 
डाल से तोड़ उड़ा दूर ले गयी 
योवन का रस अब ढ्लने सा लगा 
रस शाख सो जो मिला था घटने सा लगा 
कब तक करता खुद से में पूरा 
अब तो साँस में फाँस अटकने सा लगा 

मै में फ़ंस गया था अब समझने लगा हु 
जीवन का अर्थ अब महसूस कर रहा हु 
अकेला सा पथ पे नहीं चला जाता 
शाख से बंधा था तो ही सरल था 
जीवन मै जीवन बहुत ही मगन था 
टूट के टूटना यही सत्य दर्शन है 

अब जा के समझा जब सब सुख गया 
शाख से बंधा था क्यों टूट गया 
अब न जुड़ पाउँगा होम हो जाऊंगा 
बीज बन के कही पड़ जाऊंगा 
बूंदे प्यार की पाने को तड़पता रहूँगा 

गर जो बरसा फिर से मुझपे सावन 
कोंपल सा फिर से निकल बाहर आऊंगा 
न इतरा के साक्ष्य दिखाऊंगा 
सत्य का पथ बस खिल के बताऊंगा ....

Saturday 14 January 2012

बेफिक्र जिंदगी......

रिश्तों की अजब सी भीड़ देखी
बिखरी बिखरी सी बेफिक्र जिंदगी देखी 
छोटे छोटे टुकड़ों में तलाशती 
प्यार के दाने चुनती देखी 

माल के किसी कोने में सुकडी सी
गले में बाहों को डाले
लिफ्ट में फुसफुसाते सी देखी

प्यास दो पलों की
आँखों ही आँखों में पिघलती देखी
तेज़ रफ़्तार है बड़ी तेज़ धार है
उस धार पे उफ्फंती वोह मझधार देखी

पुलिंदे बांधे सिने में लगे
बसों की कतार में उमीदों में खड़ी
बड़ी बेबाक बेफिक्र वोह आस देखी

दोड़ती है मेट्रो की लाइनों पे
रोज़ सुबह शाम देर रात
सुलगती दहकती यार की हर शाम देखी

पार्क के किसी कोने में दुबकी
कार में सिट पे मुह ढके
सिमटी सी प्यारी सी
होंठों पे खिलती नन्ही मुस्कान देखी

शुक्र है अभी जिन्दा है
जिंदगी में डूबी जिंदगी की
रोज़ होती मुहब्बते आम देखी

न कभी बुझेगी न थमेगी
जो कल भी थी जो आज भी है
सांसों में जलती हीर की रांझे
रांझे की हीर ..
पे होती कुर्बान मेने जान देखी .................. 

जिंदगी के पन्ने......

जिंदगी के पन्ने आज फिर उलट डाले 
फिर आज बड़े तीखे उसमे मसाले डाले 
खट्टे मीठे सारे सपने उधेड़ डाले ........

रुकी हवाओं को आज फिर उड़ाना है 
पंख लगा साथ उनके लौट जाना है 
बचपन तुझे फिर आज गले लगाना है ......

तन सा गया था ठुठ बन सा गया था
उसपे झरना प्यार का फिर से बहाना है
चंचल शोख बेफिक्र दिल को जगाना है ....

पकड़ हाथ आज फिर... ले देख
जिंदगी तुझे जिंदगी से आज फिर मिलाना है ...

मुस्कान से जीवन को सवारो...

चलो अब घर चलें , दिन भी चला गया ...............
नए नए रंग सारे बदल गया ...

धरा की गोद में सुबह चुप चाप आया 
नीले अम्बर में था उसने प्रकाश बिछाया 
सन्देश उसने बस यही सुनाया 
न नापो न तोलो बस सब के साथ एक सा हो लो
में भी तो सब पे धुप दे जाता हु
फरक नहीं दिखलाता हु
अँधेरे दूर भगा के उजालों का संगीत सुनाता हु

तुम भी करो दूर सब कालिमा
द्वेष दंश छलकपट की मत करो प्रपंच्मा
सौहार्ध्य से सब को गले लगा लो
मुस्कान से जीवन को सवारो.......... 

सफ़र

गुजरते ही नहीं यह लम्हे ..
इधर में हु की बहता जा रहा हूँ 
रेत हु की पानी हु
वक़्त की बंद मुठिओं में
कैसे फिसलता जा रहा हूँ ...
कैसे समझोंगे नहीं जानता
पल पल बदलता ही जा रहा हूँ ....

न सोचा था न समझा था ..
ठहर सा में गया जो था 
लगा की पा लिया उसको
वोह लम्हा ऐसा ही कुछ था
कब वोह गुज़र गया
पता भी न चला मुझको
खुद को बहता हुआ पाया
वोह दोजख वक़्त ही तो था

क्या कहता नहीं समझा
बड़ा ही अजीब सा मंजर हूँ
लुट के खुदी से खुद देखा
सौदैए जिंदगी से सस्ता हूँ
बस बहना ही सफ़र है अब तो
लहरें तुफानो का बाशिंदा हूँ .......................