हमारी वाणी

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Friday, 9 December 2011

बिजलियां हैं आतिश सी...


बेजार ही बस यु ही घरघराती नहीं आसमानों में
जोर कुछ तो चोर  है इन बेहिसाब आतिशी हवाओं में


कितनी अजाब सी ख़ामोशी  है फिर इन घटाओं में 
इक आवाज़ फिर भी आ रही है इन फिजाओं  से 


कोई तो आ के बताये  की क्या जुदा है इस सब में 
मुहब्बत  और प्यार के इन कमबख्त सारे फ़सानों में


मौत  दबे  पावों धीरे से जब भी जाती मयखाने में  
होंश उड़ जाते है बेबाक  जिंदगी  के शराबखानों में


बैठ नुकड़ पे यार  इश्क  तामीर क्यों करता है
कौन कमबख्त गुज़रता है उन वीरान राहों से 


तनहा तनहा इन्ही तिनकों में देख गुज़र जाएँगी 
बिजलियां हैं आतिश सी दिल को आखिर जला ही जाएँगी .....

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