उधेड़ता रहा सपनो के सारे धागे ..
की ख्वाब में ही तेरी जीस्त छुपी होगी
ढूंड लूँगा किसी तार में तू कही तो छुपी होगी..
सब कुछ बिखार दिया लो मेने आ देख जरा
कमबख्त रात भी जाने कट गयी कहाँ ....
चैन सोचा था मिल ही जायेगा
रुखसार से तेरे आज पर्दा हट ही जायेगा
सीने में बसी आग बुझेगी आखिर
मेरे यार से दीदार हो ही जायेगा
नहीं जनता था की हश्र होगा ऐसा
उधेड़ता हु खलिश में यु ही सपनो को
बार बार उलझ के उनमे क्या पता था आखिर
खुद ही उधड़ के बिखार जाऊंगा ....
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